Monday, March 24, 1997

पूछो मेरे खयालों से

चले जा रही थी एक अर्थहीन राह पे
शायद कभी आ जाये, जिसका इनतजार है
चलते कई बेनाम राहों पर, अजनबी देश में
नज़र पडी उस द्र्ष्य पर, जो दिल दहला गया

इन पाव तले उस ठंडी रेत का अहसास
सामने लहराते समुद्र की करवटे
जैसे सब खुशियाँ इन झौंको में लिपटी
दौडी मेरी ओर आ रही है ।

रेत से लिपटी मैं खॆलती रही
पानी की बूँदो की कपकपी अपने चहरे पर महसूस करती रही
ना था पता दिन ठलने तलक मैंने
एक छोटा सा घरौंदा तयार कर रखा है

रेत का ठेर नही, मेरे अरमान हैं वो
आवज मेरी, साँसे, रुह है मेरी वो
छूओ ना, देखो नाजुक है मेरा मन
कि उसमे मेरा लहु दौड रहा है

बनाए जा रही थी ये टीले, की ये ही तो एक निशानी है
ना था पता, ये एक अधूरी सी कहानी है
एक छोटे से घर मे बंद कर डाली सब खुशियाँ अपनी
डर था कि इर्द गिर्द दुनिया मंड्ररा रही है

झलक ही देखी थी अभी पूरा होने पर
कि दूर आकाश धुंधलाता नजर आया
लिपट मैं अपने घरौंदे से, शय देने को
वोह तुफ़ान है, मेरी खुशियाँ लूटने आता नज़र आया

कमज़ोर पड गयी मैं की वो मुझसे बलवान है
झुकी रही उसपर मैं छाया बन
पर देखो वो मुझे कैसे
चीरता चला जा रहा है

दूर रहो ना छूने दूँगी तुम्हे इसको
तुम इसके एक स्पर्श के भी काबिल नहीं
येह भी नहीं की एक नज़र ही देख लो
नहीं येह अधिकार तुम्हे हाजिल नहीं

रौंद डाला मैंने खुद ही, अपने पैरों तले
पडा है लहुलुहान लिपटा मेरे कदमो से,
पर गम नही - खुशी है तुम तो ना करीब आ सके
मुझे उसपर तुम्हरी एक छुअन भी मंजूर नहीं

उस पाक स्वप्न को रहने दो मुझतक ही
अब तुम पहुँच पाओ ये मुमकिन नहीं
नुम्हारे लिये सिर्फ़ एक सन्नटा है
कोइ वस्तु, जीव, या रूप रंग नहीं

नहीं है कुछ फ़िर भी जीये जा रही हूँ मैं
स्वाश चल रही है उसकी, सामने है मेरे
तुम समझते हो तो समझो
पर आज भी जिंदा है वो
.....पूछो तो जरा ख्यालौं से मेरे ।

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