Wednesday, May 19, 2010

अजनबी

अजीब सी यह बात
अपने ही देश में हम कुछ अजनबी हो गए
अपने हुए पराये
पर पराये अपने ना हुए

ना लोग अपने रहे ना ही स्वभाव
वोह बस मतलब का व्यव्हार रखने लगे
दीवारें हैं जो पहचानती हैं अब हमको
हम दीवारों से ही बत्याते चले गए

खुद से बात कर, दिल बहलता ज़रूर है
पूछता लेकिन वोह कुछ सवाल जिनके जवाब नहीं
क्या कहूं जब पूछे वोह मुझसे
की जो कल तक साथ था वोह अब पास क्यूँ नहीं

समझाऊँ कैसे की सच ना था खाब था वो
अभ जो दीखता वो रूप कोइ और है
वोह न था अपना कभी, और ना होगा
होने वालों का रंग रूप कुछ और है

Monday, November 03, 1997

आज फ़िर एक बार...

लौट आई है आज शाम तन्हाइयों की
उन अनगिन्नत शामों की तरह
छोड मुझे अकेले, फ़िर जो चली
उन बीती रहों पर येह यादें मेरी
आज फ़िर एक बार...

लौट ना आना अब तुम, अब में
वहीं, वही जी लेने दो तुम
एक बार फ़िर खुश हूँ मैं
वापस ना मुड आना तुम
आज फ़िर एक बार...

जो खोया था मैंने कभी
पा लेने दो अब तो मुझको
समेटने दो मुझको वो बिखरे मोती
ना दो टूटने मेरे सपनॊ की माला तुम
आज फ़िर एक बार...

ना छीनो, अब तो छू लेने दो
जो देखा भी न था कभी
ना पाकर भी जो पाया है मैंने
मर ना जाऊँ मैं उसको खोकर
आज फ़िर एक बार...

Tuesday, August 12, 1997

उसी के लिये तो आज भी जिन्दा हूँ मै

गमे दर्द बयाँ करने से हलका होता
तो कबके कर देते
रोने से गम कम होता
तो येह गम कबके बहा देते

यूँ ही नहीं थामे बैठा हूँ मैं
मेरे जख्म, और वोह यादें
इन्हीं के सहारे तो आज भी जिन्दा हूँ मै

उस एक पल को पाने को
फ़िर इतनी बार मरने को त्यार हूँ मै
अगर उसे ही भुला दिया तो
जीने का सहरा क्या रहा

आज भी जीता हूँ मै
वो लम्हें, हर साँस मे मेरी
बीत गया तो क्या
उसी के लिये तो आज भी जिन्दा हूँ मै

Monday, March 24, 1997

पूछो मेरे खयालों से

चले जा रही थी एक अर्थहीन राह पे
शायद कभी आ जाये, जिसका इनतजार है
चलते कई बेनाम राहों पर, अजनबी देश में
नज़र पडी उस द्र्ष्य पर, जो दिल दहला गया

इन पाव तले उस ठंडी रेत का अहसास
सामने लहराते समुद्र की करवटे
जैसे सब खुशियाँ इन झौंको में लिपटी
दौडी मेरी ओर आ रही है ।

रेत से लिपटी मैं खॆलती रही
पानी की बूँदो की कपकपी अपने चहरे पर महसूस करती रही
ना था पता दिन ठलने तलक मैंने
एक छोटा सा घरौंदा तयार कर रखा है

रेत का ठेर नही, मेरे अरमान हैं वो
आवज मेरी, साँसे, रुह है मेरी वो
छूओ ना, देखो नाजुक है मेरा मन
कि उसमे मेरा लहु दौड रहा है

बनाए जा रही थी ये टीले, की ये ही तो एक निशानी है
ना था पता, ये एक अधूरी सी कहानी है
एक छोटे से घर मे बंद कर डाली सब खुशियाँ अपनी
डर था कि इर्द गिर्द दुनिया मंड्ररा रही है

झलक ही देखी थी अभी पूरा होने पर
कि दूर आकाश धुंधलाता नजर आया
लिपट मैं अपने घरौंदे से, शय देने को
वोह तुफ़ान है, मेरी खुशियाँ लूटने आता नज़र आया

कमज़ोर पड गयी मैं की वो मुझसे बलवान है
झुकी रही उसपर मैं छाया बन
पर देखो वो मुझे कैसे
चीरता चला जा रहा है

दूर रहो ना छूने दूँगी तुम्हे इसको
तुम इसके एक स्पर्श के भी काबिल नहीं
येह भी नहीं की एक नज़र ही देख लो
नहीं येह अधिकार तुम्हे हाजिल नहीं

रौंद डाला मैंने खुद ही, अपने पैरों तले
पडा है लहुलुहान लिपटा मेरे कदमो से,
पर गम नही - खुशी है तुम तो ना करीब आ सके
मुझे उसपर तुम्हरी एक छुअन भी मंजूर नहीं

उस पाक स्वप्न को रहने दो मुझतक ही
अब तुम पहुँच पाओ ये मुमकिन नहीं
नुम्हारे लिये सिर्फ़ एक सन्नटा है
कोइ वस्तु, जीव, या रूप रंग नहीं

नहीं है कुछ फ़िर भी जीये जा रही हूँ मैं
स्वाश चल रही है उसकी, सामने है मेरे
तुम समझते हो तो समझो
पर आज भी जिंदा है वो
.....पूछो तो जरा ख्यालौं से मेरे ।